कभी देशभर में मशहूर था पिलखुवा का तिरपाल, अब सस्ते प्लास्टिक से बाजार पटा पड़ा
पिलखुवा। उत्तर भारत में तिरपाल उद्योग की पहचान बन चुके पिलखुवा का पारंपरिक उद्योग गंभीर संकट में है। असली तिरपाल की जगह अब बाजार में सस्ते प्लास्टिक की पट्टियाँ बिक रही हैं, जिन्हें ‘तिरपाल’ कहकर बेचा जा रहा है। इससे सैकड़ों कारीगर बेरोजगार हो चुके हैं और उद्योग की जड़ें हिल चुकी हैं।
प्लास्टिक की चादर ने छीनी पहचान
पिलखुवा में तैयार असली तिरपाल कभी दिल्ली से लेकर पटना, जयपुर, लुधियाना और देहरादून तक भेजा जाता था। लेकिन अब सस्ती और रंगीन प्लास्टिक सीटें, ब्रांड की नकली मोहर लगाकर, बाजार में असली तिरपाल के रूप में बेची जा रही हैं।
कारीगर खाली, लूम बंद
स्थानीय कारीगरों का कहना है कि अब काम हफ्ते में केवल दो दिन ही मिलता है। कई लूम पूरी तरह बंद हो गए हैं। कुछ अनुभवी तिरपाल बुनकर मजदूरी या ठेला चलाने को मजबूर हैं।
“अब कारीगरी नहीं, गिनती रह गई है। असली माल कोई नहीं पूछता और नकली हर दुकान पर है,” — एक वरिष्ठ व्यापारी
बाजार में नहीं है ईमानदारी की पूछ
व्यापारियों का कहना है कि आजकल तिरपाल क्वालिटी से नहीं, पैकिंग और ब्रांडिंग से बिकता है। बाहर से आया सस्ता माल स्थानीय नाम से बेचा जा रहा है, और न ग्राहक सवाल कर रहा है, न सरकार देख रही।
उद्योग के सामने खड़े हैं कई संकट
- नकली प्लास्टिक तिरपाल की भरमार
- कारीगरों को मेहनताना नहीं मिलना
- लूम मशीनें बंद होना
- सरकारी संरक्षण और नीतियों का अभाव
यदि नीति नहीं बनी तो उद्योग इतिहास बन जाएगा
स्थानीय व्यापारियों ने चेताया है कि यदि सरकार ने त्वरित हस्तक्षेप नहीं किया, तो पिलखुवा का यह पारंपरिक उद्योग इतिहास के पन्नों में सिमट जाएगा। आने वाली पीढ़ियाँ तिरपाल के बारे में केवल किताबों में पढ़ेंगी, कि यह कभी किस हद तक उपयोगी और टिकाऊ हुआ करता था।
विशेष रिपोर्ट:
👉 यह तिरपाल प्रमुख रूप से जाता था: दिल्ली, फरीदाबाद, पानीपत, करनाल, जयपुर, कोटा, लुधियाना, जालंधर, हरिद्वार, देहरादून, ग्वालियर, भोपाल, पटना, गया, रांची, जमशेदपुर आदि शहरों में।